गुरुवार, 26 जनवरी 2012

(लघु कथा) एण्ड द अवार्ड गोज़ टू…



एक बार, टेलीविज़न चैनलों के सीरियलों की रेटिंग नापने के लिए एक अवार्ड-शो हुआ. बाक़ी अवार्ड तो ख़ैर अपनी जगह, लेकिन सर्वश्रेष्ठ नायिका का अवार्ड सीरियल के संगीतकार को देने की घोषणा हुई तो हपड़-धपड़ मच गई. पहले तो लोगों को लगा कि अनांउसर ने खेल कर दिया होगा. पर पता चला कि उसने ठीक पढ़ा था तो लगा कि लिखने वाले ने ग़लती कर दी होगी, पर उसने बताया कि लिखा भी वही है जो उसे बताया गया था. सीरियल के बाबा लोग जज बाबू के पास पहुंचे. जवाब मिला –‘देखो  भई, तुम्हारे सीरियल की हीरोइन की तो पहचान ही इसलिए बनी है कि वो जब भी वह कुछ बोलती है तो पीछे से म्यूज़िक आता है ढैं-ढैं. और जब भी वह इधर-उधर घूमती है तो तीन बार जुड़वां म्यूज़िक आता है ढैं-ढैं, ढैं-ढैं, ढैं-ढैं.’ अवार्ड-शो फिर आगे चल पड़ा.
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शनिवार, 14 जनवरी 2012

(लघुकथा) गर्दभनृत्य

एक जंगल था. उस जंगल में कुछ शेर थे. कुछ गघे थे. शेर राजा थे. गधों को पसंद नहीं आया. उन्होंने चुनावों में शेर हरा कर गधे जितवा दिए. अब उस जंगल के गधों पर गधे राज करते हैं. शेर सोते हैं.
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रविवार, 1 जनवरी 2012

शुभकामनाएं - नए रूप


पहले मैं शुभकामनाओं के लिए, सुखाए गए पत्तों या काग़ज़ के… अपने हाथ से बनाए ग्रीटिंग कार्ड भेजता था.
फिर दुकान से ख़रीद कर भेजने लगा.
फ़ोन आने पर, फ़ोन से ही शुभकामनाएं दे दी जातीं.
कंप्यूटर आने पर इलेक्ट्रानिक ग्रीटिंग कार्ड जाने लगे.
फिर इलेक्ट्रानिक ग्रीटिंग कार्ड के बजाय केवल ई-मेल भेज कर काम चलाने लगा.
मोबाईल आए तो SMS से शुभकामनाएं दे दी जातीं.
फ़ेसबुक आने से अब बस वहां लिख आता हूं (जिसे पढ़ना हो जाकर पढ़ ले भई).
कल हो सकता है कि मैं मन ही मन सोच कर इतिश्री मान लूं कि चलो पीछा छूटा, हो गया ये काम भी :)
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-काजल कुमार