रविवार, 3 मार्च 2013

(लघुकथा) जीवनोत्सव



एक पहुंचे हुए संत थे. सांसारि‍क मोहमाया से दूर, प्रभुभक्‍ति‍ में लीन रहते. एकांतवास ही उनकी जीवनशैली थी. एक बार, उनका एक भक्‍त बहुत दुखी मन से उनके पास पहुंचा. संत ने उसे बैठाया और पूछा कि‍ क्‍या हुआ. उसने बताया कि‍ उसका जवान बेटा नहीं रहा. कुछ पल के मौन के बाद वे बोले कि‍ जीवन एक उत्‍सव है और उसे उत्‍सव के अवसर पर अवसाद रहि‍त रहना चाहि‍ए. भक्‍त के चेहरे पर असमंजस के भाव थे.

उन्‍होंने आगे कहा- जब बच्‍चे का जन्‍म होता है तो परि‍वार प्रसन्‍न होता है, प्रसन्‍न्‍ता व्‍यक्‍त करने के वि‍भि‍न्‍न उपक्रम करता है. कुछ समय उपरांत वह बच्‍चा साथि‍यों के जन्‍मदि‍वस कार्यक्रमों में सम्‍मि‍लि‍त होता है. आगे चलकर वह अपने उन्‍ही मि‍त्रों के वि‍वाह समारोहों में सम्‍मि‍लि‍त होने लगता है. फि‍र मि‍त्रों के बच्‍चों के जन्‍मदि‍न मनाए जाते हैं और आगे चलकर उन बच्‍चों के वि‍वाह संपन्‍न होते हैं. फि‍र, मि‍त्रों के माता-पि‍ता के देहांत के समाचार मि‍लते हैं और एक दि‍न उन्‍हीं मि‍त्रों की अंत्‍येष्‍टि‍यों में भी सम्‍मि‍लि‍त होने का समय प्रारम्‍भ होता है. जन्‍म से मृत्‍यु तक की जीवन-यात्रा एक उत्‍सव है और जो कुछ इस बीच घटि‍त होता है वे तो इस उत्‍सव को मनाने की प्रक्रि‍याएं मात्र हैं. पुत्र के जाने पर शोक कैसा. जीवन अनंत उत्‍सव है.

भक्त, वैराग्‍य से अनभि‍ज्ञ नहीं था किंतु वि‍रक्‍ति‍ से ज्ञान की ऐसी धारा भी बहती है, इसका सामना उसने आज पहली बार कि‍या था.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन-सार को सुन्दरता से समझाती हुयी कथा !
    पढ़कर अच्छा लगा !

    बधाई / आभार

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  2. अक्षरश: सत्य है ...जीवन को उत्सव की तरह मनाया जाय तो ही जीवन ...वरना तो जीते जी मरण ..

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  3. "जीवन उत्सव है ... मरण उत्सव थोड़े न है ...." भक्त को पूछना चाहिए था .....

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